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रुड़की: आईआईटी रुड़की का कमाल, गेहूं भूसे से बने पर्यावरण-अनुकूल डिस्पोजेबल प्लेट्स; फसल अवशेष जलाने व प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम

रुड़की।

उत्तराखंड के आईआईटी रुड़की ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। संस्थान की इनोपैप लैब (Innovation in Paper & Packaging Lab) ने पैरासन मशीनरी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, औरंगाबाद के सहयोग से गेहूं के भूसे से बने जैव-अवक्रमणीय और कम्पोस्टेबल टेबलवेयर का सफल विकास किया है। यह तकनीक फसल अवशेष जलाने की समस्या और एकल-उपयोग प्लास्टिक के प्रदूषण को एक साथ हल करती है, जो “मिट्टी से मिट्टी तक” के सिद्धांत पर आधारित है।

पर्यावरण-अनुकूल नवाचार 2025: कृषि अपशिष्ट से संपदा

भारत में प्रतिवर्ष लगभग 35 करोड़ टन कृषि अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिसका बड़ा हिस्सा जला दिया जाता है, जिससे वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य हानि बढ़ती है। आईआईटी रुड़की का यह इनोवेशन गेहूं भूसे को ढाले हुए प्लेट्स, गिलास और अन्य टेबलवेयर में बदल देता है, जो उपयोग के बाद मिट्टी में घुल जाता है। कागज प्रौद्योगिकी विभाग के प्रो. विभोर के. रस्तोगी, जो इस परियोजना के प्रमुख हैं, ने कहा, “यह शोध रोजमर्रा के फसल अवशेषों को उच्च गुणवत्ता वाले पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों में बदलने की क्षमता दर्शाता है।

विज्ञान और इंजीनियरिंग पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित व आर्थिक समाधान प्रदान कर सकते हैं।”यह पहल स्वच्छ भारत मिशन, आत्मनिर्भर भारत और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) से जुड़ी है, खासकर SDG 12 (जिम्मेदार उपभोग और उत्पादन) व SDG 13 (जलवायु कार्रवाई)। प्रो. विभोर ने बताया कि यह चक्रीय अर्थव्यवस्था मॉडल किसानों को अतिरिक्त आय देगा, क्योंकि अपशिष्ट अब संपदा का स्रोत बनेगा।

आईआईटी रुड़की: नवाचार का केंद्र

संस्थान के निदेशक प्रो. कमल किशोर पंत ने कहा, “यह नवाचार आईआईटी रुड़की की समाज की वास्तविक चुनौतियों के प्रति प्रतिबद्धता को दिखाता है। यह स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया जैसे राष्ट्रीय अभियानों को मजबूत करता है तथा लैब रिसर्च को व्यावहारिक प्रभाव में बदलता है।” परियोजना में पीएचडी छात्रा जैस्मीन कौर और पोस्ट-डॉक्टरल शोधकर्ता डॉ. राहुल रंजन ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैस्मीन ने कहा, “युवा शोधकर्ता स्थायी भविष्य के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं।”

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन: भारत की चुनौती

फसल अवशेष जलाने से दिल्ली-एनसीआर सहित उत्तर भारत में स्मॉग की समस्या बढ़ती है। यह टेबलवेयर न केवल प्लास्टिक वैकल्पिक है, बल्कि सस्ता और टिकाऊ भी। पैरासन मशीनरी के सहयोग से विकसित यह तकनीक अब व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन के लिए तैयार है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बूस्ट देगी।

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